मैत्री

चार दीवारों के भीतर ना
मन मंदिर में वास हो जिसका

घर से बाहर जब मैं निकलूं
परछाई सा साथ रहे वो

अटक अटक के जब मैं बोलूँ
शब्द मेरे बन जाये वो

डांट पड़े जो माँ की मुझको
मोती से अश्रु छलकाय वो

उसके हक की लौकी मेरी
मेरी जलेबी चटकाए वो

शिक्षक बन, मेरे जीवन की
कठिन गणित सुलझाए वो

सीख सदा दे सही राह की
गलत चुनूं तो धमकाये वो

जीवन की काली रातों में
दीया बन, राह दिखाए वो

वो जीते या मैं जीतू
नभ पर संग चढ़ जाये हम

इस सुदामा के जीवन का
कृष्ण कन्हैया बन जाए वो


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