कैसा होता ये उपवन जो
फूल गुलाब ही इसमे खिलता
इन्द्रधनुष कैसा होता जो
रंग सफ़ेद ही उसमें रहता
काली जो ये रात ना होती
कुकर्मों की सौगात ना होती
रंग काला यूं बदनाम ना होता
सफ़ेद से यूं प्यार ना होता
धाराओं में जो प्यार ना बंधता
प्यार पर यूं कोहराम ना मचता
हर सांचे का एक रचियता
बस, अलग-अलग मूरत है गढ़ता
बिन शब्दों का काव्य सुना है
सिया बिन क्या राम जिया है
प्रगति की वो गति है नारी
थम जाए तो क्षति है भारी
नाटा मोटा लंबा गंजा
जग ने नाम दिए है सबको
रूप का दर्पण तोड़ के सोचो
नाम कर्म को जोड़ के देखों
हर पीढ़ी का एक ही सपना
शिलालेख पर नाम हो अपना
घर के पतों में नाम रह जाते
जोश और होश जो संग ना आते
नाम, रूप के बंधन तोड़ो
धर्म, पंथ के भेद मिटा लो
समय कठिन है, व्याध विभिन्न है
संग चल दो तो राह सरल है
प्रतीक पागे