यादों की एक पगडंडी मेरे शहर से होके जाती है
हर मील के उजड़े पत्थर पर कुछ लम्हों से मिलवाती है
एक अकेला खड़ा हुआ गुलमोहर पास बुलाता है
चाव से अपनी छांव में सिमटे कुछ साये याद दिलाता है
एक शहर था मेरा,
जहां दीवारें बस कमरों में थी, छतें जुड़ी थी, एक थे आँगन
लुका-छिपी बस खेलों में थी, खुले हुए थे मन के प्रांगण
जहां मैदानों में बच्चे और बच्चों के झगड़े होते थे
क्या शहर था मेरा जहां झगड़े बस मैदानों में खोते थे
रंगोली के रंग कभी चौखट ना पूछा करते थे
और दरवाज़े भी कहा किसी की दस्तक माँगा करते थे
गली का हर घर नचता था जब ढ़ोल विवाह का बजता था
और अंत समय में दादी के हर आँख से आंसू बहता था
वो शहर था मेरा
जो महलों के कंगुरो को एक वीराना सा लगता था
पर उस वीराने में साथ हमारे सारा ज़माना रहता था
एक उम्र गई कमा खाने में,अब याद शहर की आती है
रख दिए चांद पर अपने कदम पर याद ज़मीं की आती है